सांसारिक धन और उसके 15 दोष – जानिए कैसे प्रभावित होता है जीवन

“सांसारिक वैभव को सुख मानना सबसे बड़ी भूल है।”
यह वचन हमें गहराई से सोचने पर मजबूर करता है। यदि मनुष्य जीवनभर केवल धन को ही सुख का स्रोत मानकर उसे पाने की दौड़ में लगा रहे, तो वास्तव में वह अत्यंत दुर्भाग्यशाली है। क्योंकि सांसारिक धन भगवान की प्राप्ति नहीं करा सकता।

भगवान के दरबार में सम्मान किसका है?

भगवान के दरबार में सम्मान उन लोगों का नहीं होता जिनके पास अपार धन, गाड़ियाँ या महल हैं। वहाँ आदर उन्हीं को मिलता है जो अकिंचन हैं —
जिन्हें न धन का गर्व है, न पद का अहंकार, न वैभव का मोह।

भगवान उन्हीं से प्रेम करते हैं, जिनके हृदय में धन का महत्व नहीं होता। क्योंकि यही धन का बल मनुष्य को भगवान से दूर कर देता है।

धन अपने आप में दोषपूर्ण नहीं है, परंतु दोष तब होता है जब हम उसका महत्व भगवान से अधिक समझने लगते हैं। यदि यही धन भगवान की सेवा में, धर्म कार्यों में, या परिवार के पालन में प्रभु का कार्य मानकर उपयोग किया जाए, तो वही धन बंधन नहीं, भक्ति का साधन बन जाता है।

लेकिन जब धन ही जीवन का लक्ष्य बन जाए, तब वही धन व्यक्ति को भीतर से खोखला कर देता है।

धन के 15 दोष

शास्त्रों में कहा गया है कि धन के साथ 15 दोष जुड़े होते हैं। जब धन का आकर्षण बढ़ता है, तो ये दोष धीरे-धीरे मनुष्य के हृदय में प्रवेश कर जाते हैं।

  1. चोरी – “कुछ भी करके धन कमाना है।” सत्य के मार्ग से हटकर झूठ और छल की ओर बढ़ना।
  2. हिंसा – धन के लिए लोग एक-दूसरे का नाश करने से भी नहीं हिचकते।
  3. असत्य – धनलोलुप व्यक्ति के वचन में सत्य का अभाव रहता है।
  4. दंभ – अपने धन का दिखावा करना।
  5. कामना – “आज सौ कमाया, कल दो सौ, फिर लाख…” यह इच्छा कभी समाप्त नहीं होती।
  6. क्रोध – जहां कामना होती है, वहां असंतोष और क्रोध भी जन्म लेते हैं।
  7. लोभ – “थोड़ा और चाहिए।”
  8. गर्व – “मैं अमीर हूं, मैं श्रेष्ठ हूं।”
  9. अहंकार – “मेरे बिना कुछ नहीं हो सकता।”
  10. भेद बुद्धि – “यह मुझसे छोटा है, यह बराबर है, वह बड़ा है।”
  11. वैर – धन के कारण ईर्ष्या और द्वेष।
  12. अविश्वास – “कोई मेरा धन हड़प न ले।” हर संबंध में शंका घर कर लेती है।
  13. स्पर्धा – “मैं सबसे बड़ा बनूं।”
  14. लंपटता – जुआ, मदिरा और विषयासक्ति में फंसना।
  15. मद (आसक्ति) – “मुझसे बड़ा कोई नहीं।”

इन दोषों के बढ़ने से धन अशुद्ध हो जाता है और मनुष्य की बुद्धि भी दूषित हो जाती है।
तब चाहे कितना भी धन हो, मन को शांति नहीं मिलती।

सच्ची कमाई क्या है?

धन कमाना पाप नहीं है, लेकिन धन को ही जीवन का उद्देश्य बना लेना – यही पतन की जड़ है।

जब धन धर्म के मार्ग से, परिश्रम और सत्य से कमाया जाए तो वह जीवन में पवित्रता लाता है। लेकिन जब धन का स्थान भगवान से ऊपर हो जाए, तब वही धन विनाशकारी बन जाता है।

भक्तजन सदैव इस सत्य को जानते आए हैं। उनके लिए सांसारिक धन नहीं, बल्कि नाम रूपी धन ही सबसे बड़ा खज़ाना रहा है।

नाम धन ही परम धन है

श्री हरिराम व्यास जी महाराज कहते हैं —

“नाम रूपी धन जितना बांटो, उतना बढ़ता है।”

सांसारिक धन खर्च करने से घटता है, परंतु नाम धन खर्च करने से बढ़ता है।

मीरा बाई ने भी कहा –

“राम रतन धन पायो, खर्च न खूटे, चोर न लूटे, दिन-दिन बढ़त सवायो।”

यह वही धन है जो कभी चोरी नहीं होता, कभी घटता नहीं, और मृत्यु के बाद भी हमारे साथ जाता है।

सच्चे सुख की पहचान

सांसारिक धन मृत्यु के बाद साथ नहीं जाता।
हम जीवनभर जिस धन को जोड़ते हैं, वह यहीं रह जाता है।

परमात्मा के नाम का धन, प्रेम का धन, भक्ति का धन — यही सच्चा धन है जो साथ जाता है।

यदि इस सत्य को हृदय से समझ लिया जाए, तो यह विचार हमें झकझोर देता है –
“जिस धन के लिए मैंने पाप कर्म किए, वही धन मृत्यु के बाद कुछ नहीं करेगा!”

संतों ने इस बात को गहराई से समझा और सांसारिक सुख की दौड़ को व्यर्थ मानकर अपने जीवन को नाम और प्रेम की कमाई में लगा दिया।

भक्तों का उदाहरण: श्री कुंभनदास जी

भक्तमाल में वर्णित श्री कुंभनदास जी महाराज गृहस्थ थे, कोई संन्यासी नहीं।
घर में सोलह सदस्य थे, फिर भी कभी अभाव नहीं हुआ।
वे गिरिराज जी की छांव में रहते, फल खाते और श्रीनाथजी का भजन करते।

जब राजा मानसिंह ने उन्हें हीरे-जवाहरात देने चाहे, तो कुंभनदास जी बोले –
“राजन! हमें कुछ नहीं चाहिए। हमारे श्रीनाथजी हमारा पालन कर रहे हैं।”

ऐसा विश्वास केवल उसी के हृदय में होता है जिसने धन का मोह त्याग दिया हो और भगवान को अपना सर्वस्व मान लिया हो।

यह संसार बेगाना देश है

यह संसार हमारा नहीं है, यह केवल एक पड़ाव है।
हमारा सच्चा घर भगवान का धाम है — वह वृंदावन, वह प्रेमधाम।

वहाँ जाने के लिए वहाँ की मुद्रा चाहिए — नाम रूपी धन
जिसके पास नाम का धन नहीं, वह वहाँ कैसे रह पाएगा?

इसीलिए संत कहते हैं –
“वृंदावन सांचो धन भैया।”
वृंदावन ही सच्चा धन है।

सच्चा प्रेम ही सच्ची कमाई है

श्री सरस माधुरी जी का पद कहता है –
“आशिक होकर इश्क कमावे, सो प्रीतम मन भाता है।”

जो प्रेमी बनकर प्रेम कमाता है, वही भगवान के मन को भाता है।
सच्ची कमाई यह नहीं कि हम करोड़पति बनें, बल्कि यह है कि हम भगवान के प्रिय बनें।

जब हृदय में यह भाव स्थिर हो जाए –

“श्यामसुंदर सदा हमारे प्यारे रहें, हम उन्हीं के रहें, वे हमारे रहें,”

तब समझिए हमने सच्चा धन पा लिया।

निष्कर्षः धन नहीं, भक्ति ही जीवन का सार है

धन, वैभव, ऐश्वर्य – सब क्षणभंगुर हैं।

परम धन केवल भगवान का नाम, उनका प्रेम और उनकी कृपा है।

सच्चा सुख वहीं है जहां भगवान हैं – जहां नाम है, प्रेम है, भक्ति है।

धन खर्च करने से घटता है,
पर नाम खर्च करने से बढ़ता है।

वही सच्ची कमाई है जो हमें भगवान के और निकट ले जाती है।

FAQ’s

1. क्या धन रखना या कमाना गलत है?


 नहीं, धन कमाना गलत नहीं है। जब धन धर्म के मार्ग से और ईमानदारी से कमाया जाए तो वह जीवन को पवित्र बनाता है। लेकिन जब धन भगवान से अधिक महत्वपूर्ण हो जाए, तब वही धन विनाश का कारण बनता है।

2. धन में दोष क्यों कहा गया है?


 धन स्वयं में दोषपूर्ण नहीं है, लेकिन जब मनुष्य धन का दास बन जाता है, तब उसमें अहंकार, लोभ, क्रोध, असत्य, और हिंसा जैसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में धन के 15 दोष बताए गए हैं।

3. सच्चा धन किसे कहा गया है?


सच्चा धन वह है जो कभी घटता नहीं — अर्थात् भगवान का नाम, प्रेम और भक्ति। सांसारिक धन मृत्यु के बाद नहीं जाता, लेकिन नाम रूपी धन मृत्यु के पार भी आत्मा के साथ रहता है।

4. धन से शांति क्यों नहीं मिलती?


धन मनुष्य को बाहरी सुख दे सकता है, परंतु मन की शांति केवल भक्ति, नाम-स्मरण और भगवान के प्रेम से ही मिलती है। जब मनुष्य धन के मोह से मुक्त होता है, तभी उसे सच्चा सुख प्राप्त होता है।

5. धन का सही उपयोग कैसे करें?


धन का सही उपयोग तब है जब उसे भगवान की सेवा, धर्मकार्य, दान और परिवार के कल्याण में लगाया जाए। जब धन को ईश्वर की कृपा मानकर प्रयोग किया जाता है, तो वही धन भक्ति का साधन बन जाता है।

🙏 राधा वल्लभ श्री हरिवंश 🙏

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