इस संसार में किसी मनुष्य को प्रसन्न करना आसान नहीं है। हमें उसकी पसंद-नापसंद समझनी पड़ती है, उसके मन के अनुसार चलना पड़ता है। फिर भी कई बार इतना सब करने के बाद भी वह प्रसन्न नहीं होता, क्योंकि मनुष्य का मन चंचल और इच्छाओं से भरा होता है।
भक्ति का वास्तविक अर्थ है — हर पल भगवान को याद रखना, चाहे हम कार्य में हों या विश्राम में। यही भगवान को प्रसन्न करने का सबसे सरल मार्ग है। जब मन स्मरण, नाम जप और प्रेम में लीन होता है, तब भगवान स्वयं उस भक्त के हृदय में बस जाते हैं।
अच्युत स्मृति मात्रेण – स्मरण से ही प्रसन्न होते हैं भगवान
शास्त्रों में कहा गया है –
“अच्युत स्मृति मात्रेण”
अर्थात् “भगवान अच्युत केवल स्मरण मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं।”
देवताओं की पूजा के लिए तरह-तरह की सामग्री, मंत्र और विधियाँ बताई गई हैं। लेकिन जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण या नारायण की बात आती है, तो वे केवल एक सच्चे स्मरण और प्रेमभरी पुकार से ही तुष्ट हो जाते हैं।
यह बात कितनी अद्भुत है! संसार का कोई व्यक्ति आपकी केवल याद से प्रसन्न नहीं होता, लेकिन भगवान, जो आपके हृदय में ही विराजमान हैं, मात्र स्मरण से रीझ जाते हैं।
भगवान हमारे हृदय में ही विराजमान हैं
भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
“हृदि सर्वस्य तिष्ठति” – मैं सबके हृदय में स्थित हूँ।
इसलिए उन्हें पुकारने के लिए किसी बाहरी साधन या विशेष स्थान की आवश्यकता नहीं।
जब भक्त की पुकार हृदय से निकलती है, तब भगवान उसी क्षण सुन लेते हैं।
भगवान की स्मृति ही सबसे सच्चा संबंध है। जब मन में अखंड रूप से उनका स्मरण प्रवाहित होता है, तब वही भजन, वही ध्यान, और वही पूजा बन जाता है।
नाम, कीर्तन और स्मृति का गहरा संबंध
कई लोग भगवान का नाम जप या कीर्तन तो करते हैं, लेकिन यदि उसमें स्मृति नहीं है, तो वह केवल शब्द बनकर रह जाता है।
नाम तभी प्रभावी होता है जब उसमें भगवान की उपस्थिति का अनुभव हो।
जैसे कोई माला फेर रहा हो लेकिन मन कहीं और हो — तो वह केवल उँगलियों का अभ्यास है।
परंतु जब स्मृति इतनी गाढ़ हो जाए कि भगवान के नाम से ही अश्रु बहने लगें, वही सच्ची माला है।
अंतर की दृष्टि – स्मृति की साधना

भगवान की स्मृति कोई बाहरी कर्म नहीं, बल्कि अंतर की साधना है।
यह अपने भीतर झाँकने की प्रक्रिया है — यह देखने की कि हमारा मन कहाँ जा रहा है।
हम प्रायः दिनभर दूसरों की चर्चा, आलोचना, और दोष दर्शन में लगे रहते हैं।
लेकिन जिस दिन हम अपने अंतः चिंतन की ओर दृष्टि डालना शुरू करेंगे, उसी दिन से परिवर्तन प्रारंभ होगा।
जब दृष्टि भीतर जाएगी, तब राग-द्वेष समाप्त होने लगेंगे।
क्योंकि जो व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है, उसे अपने दोष दिखने लगते हैं और दूसरों के दोष अप्रासंगिक हो जाते हैं।
स्मृति की रुकावटें – दोष दर्शन और वैष्णव अपराध
भगवान की स्मृति में सबसे बड़ी रुकावट है दूसरों में दोष देखना और वैष्णव अपराध।
जब हम आलोचना या ईर्ष्या करते हैं, तब भगवान का नाम, ध्यान और स्मृति सब दूर हो जाते हैं।
इसलिए संत कहते हैं –
“सबमें भगवान का अंश देखो, सबको प्रणाम करो, सबका आदर करो।”
जब तक मन में ईर्ष्या, राग-द्वेष और तुलना रहती है, तब तक अंतर की शांति नहीं आती।
और जब मन सबमें भगवान का स्वरूप देखने लगता है, तब स्मृति सहज ही स्थिर हो जाती है।
गुरुदेव की कृपा – स्मृति का संचार
जब मन भटकने लगे और भगवान की स्मृति टूटने लगे, तब गुरुदेव के चरणों में बैठकर प्रार्थना करनी चाहिए –
“गुरुदेव! मेरे हृदय में भगवान की स्मृति का दीप जला दीजिए।”
गुरुदेव कृपा के सागर हैं।
उनकी कृपा से ही स्मृति रूपी संपत्ति हमारे हृदय में उतरती है।
जितना दृढ़ हमारा समर्पण होता है, उतना ही यह दिव्य संचार सहज हो जाता है।
गुरु-शिष्य संबंध Bluetooth की तरह है – जब श्रद्धा और विश्वास से जुड़ता है, तो कृपा अपने आप प्रवाहित होने लगती है।
स्मृति की गाढ़ता – प्रेम की पराकाष्ठा
जब स्मृति इतनी गहरी हो जाए कि भगवान की याद के बिना जीना असंभव लगने लगे, वही सच्ची भक्ति की पराकाष्ठा है।
तब हृदय पुकार उठता है –
“हे प्रभु! आपके बिना जीवन व्यर्थ है, आपके बिना क्षण असह्य है!”
ऐसी अवस्था में साधक का अहंकार गल जाता है और केवल प्रेम की तरलता शेष रह जाती है।
यह वह स्थिति है जहाँ भगवान स्वयं दौड़कर अपने भक्त के पास आते हैं।
निष्कर्ष – स्मृति ही सच्चा भजन है
भगवान को प्रसन्न करने का मार्ग वास्तव में बहुत सहज है। इसके लिए बड़े यज्ञ, व्रत या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं, बल्कि एक सच्चे और निर्मल हृदय की आवश्यकता है। जब मन में भगवान की अखंड स्मृति, प्रेम और श्रद्धा का प्रवाह होता है, तब वही भक्ति बन जाती है।
नाम जप, स्मरण और गुरुदेव की कृपा से जीवन दिव्यता से भर जाता है।
भक्त जब हर परिस्थिति में “हे प्रभु” कहकर उन्हें याद करता है, तब भगवान स्वयं प्रसन्न होकर उसके जीवन को अनंत शांति और प्रेम से आशीषित करते हैं।
यही भक्ति का सार है, यही साधना का फल, और यही जीवन का लक्ष्य है।
FAQ’s
भगवान को प्रसन्न करने का सबसे आसान तरीका है सच्चे मन से उनका स्मरण करना। जब भक्त प्रेम, श्रद्धा और विनम्रता से भगवान को याद करता है, तो भगवान स्वयं प्रसन्न होते हैं।
नहीं, भगवान केवल बाहरी पूजा या कर्मकांड से प्रसन्न नहीं होते। वे उस भक्त से प्रसन्न होते हैं जो सच्चे भाव से नाम जप और भक्ति करता है।
हाँ, जब मन हर पल भगवान की याद में रहता है, तब वही स्मरण भक्ति का सर्वोच्च रूप बन जाता है। स्मरण से मन शुद्ध होता है और भगवान की कृपा प्राप्त होती है।
गुरुदेव भक्ति का द्वार खोलते हैं। उनकी कृपा से ही हृदय में भगवान की स्मृति स्थिर होती है और साधक का मन भक्ति में लगने लगता है।
हाँ, भगवान का नाम जप सबसे सरल और प्रभावी साधना है। जब नाम जप श्रद्धा और स्मरण के साथ किया जाता है, तो भगवान तुरंत प्रसन्न होते हैं और कृपा बरसाते हैं।
🙏 राधा वल्लभ श्री हरिवंश 🙏