जब जीवन में कठिनाइयाँ आती हैं, तो मन सबसे पहले किसी सहारे की तलाश करता है। कोई अपने मित्रों की ओर देखता है, कोई रिश्तेदारों की ओर, और कुछ लोग भगवान की शरण में चले जाते हैं। लेकिन क्या सच में भगवान से संकट में सहायता मांगना उचित है?
भगवान और हमारा संबंध
भगवान हमारे परमपिता हैं और हम उनकी संतान। इस मायामयी संसार को उन्होंने ही रचा है। जैसे एक पिता अपने बच्चे को संकट में नहीं छोड़ता, वैसे ही भगवान भी अपने भक्तों का साथ नहीं छोड़ते। जब तक हमारे हृदय में इच्छाएँ हैं, तब तक भगवान से सहायता माँगना स्वाभाविक और उचित है।
लेकिन जब हमारी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, तब हमारा मन सिर्फ प्रेम में रमता है। यही प्रेम भक्त और भगवान के बीच का सच्चा रिश्ता बन जाता है।
श्रीकृष्ण का संदेश – संकट में भगवान की शरण लेना
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था कि संकट में ईश्वर की शरण लेना सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। यह कोई कमजोरी नहीं, बल्कि विवेक और श्रद्धा का परिचायक है। भगवान ने स्वयं कहा है कि जो भक्त संकट में मेरी ओर आता है, वह मेरा प्रिय है।
भक्त कितने प्रकार के होते हैं?
भक्त 4 प्रकार के होते हैं; आर्थ भक्त, अर्थार्थी भक्त, जिज्ञासु भक़्त, और ज्ञानी भक्त।

आर्थ भक्त:
आर्थ भक्त जो भक्त अपने संकट निर्वृत्ति करना चाहता है।
जो भक्त दुख और संकट से मुक्ति पाने के लिए भगवान की शरण में आता है।
अर्थार्थी भक्त:
अर्थार्थी भक्त जो संपत्ति प्राप्त करना चाहता हैं।
जो भगवान से धन, संपत्ति या सांसारिक सुखों की प्राप्ति की इच्छा से प्रार्थना करता है।
जिज्ञासु भक़्त:
जिज्ञासु भक़्त जो भगवान को जानना चाहता हैं।
जो भगवान को जानने और समझने की जिज्ञासा से उनकी शरण में आता है।
ज्ञानी भक्त:
ज्ञानी भक्त जो भगवान को जान चुका हैं, और जिनका जीवन भगवान में ही रम गया है
गीता जी में ये चार (4) भक्तों का वर्णन किया गया हैं। दो (2) तो मायाकृत है, और दो (2) अध्यात्म में हैं ।
मायाकृत और अध्यात्म भक्त किसे कहते हैं?
जिज्ञासु वो भक्त होते है, जो भगवान को जानना चाहता है वो मायाकृत नहीं है वो भगवान को जानना चाहता है। और ज्ञानी तो भगवत स्वरुप है ही, इन्हें अध्यात्म भक्त कहते हैं।

आर्थ और अर्थार्थी भक्त मायाकृत होते हैं, क्योंकि उनकी भक्ति में सांसारिक इच्छाएँ होती हैं। जबकि जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त आध्यात्मिक मार्ग पर होते हैं। जिज्ञासु भक्त जानना चाहते हैं कि भगवान कौन हैं, और ज्ञानी उन्हें जानकर ही उनके प्रेम में रम जाते हैं।
क्यों भगवान से ही सहायता मांगनी चाहिए?
जब हम अपने जीवन के संकटों में मनुष्य का सहारा लेते हैं, तो वह सहारा स्थायी नहीं होता। लेकिन जब हम भगवान का सहारा लेते हैं, तो न केवल संकट दूर होते हैं, बल्कि ह्रदय में भक्ति की अनुभूति भी होती है। संकट के समय भगवान से सहायता माँगने से मनुष्य का भगवान से गहरा जुड़ाव बनता है।
संकट में की गई प्रार्थना से जुड़ती है भक्ति
हर मनुष्य के जीवन में कोई न कोई संकट जरूर आता है। लेकिन जो व्यक्ति उस संकट की घड़ी में भगवान की ओर मुड़ता है, वही अपने जीवन को सही दिशा देता है।
मनुष्य जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके जीवन में संकट न आते हो।
दुर्वासा ऋषि, द्रौपदी और श्रीकृष्ण की कथा

एक बार परम ऋषि दुर्वासा को दुर्योधन ने चार महीने सेवा करके चतुर्मास प्रसन्न किया। दुर्वासा जी बड़े सिद्ध महापुरुष हैं। श्राप और वरदान देने में समर्थ है और क्रोधी भी हैं। क्रोध में प्रसिद्ध है एक क्षण में ग़ुस्सा आ जाए ऐसे है वो उनको प्रसन्न कर लेना बड़ा कठिन था पर दुर्योधन ने कर लिया। दुर्योधन जलता था पांडवों से यद्यप उस समय पांडव वनवास में थे।
एक प्रसंग है जब दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि को पांडवों के पास भेजा। वह चाहता था कि ऋषि क्रोधित हो जाएँ और पांडवों को शाप दे दें। द्रौपदी ने भगवान सूर्य की कृपा से जो बटलोई प्राप्त की थी, उसका नियम था कि जब तक वह स्वयं भोजन न कर लें, तब तक उसमें भोजन बना सकता है।
लेकिन जैसे ही द्रौपदी ने भोजन कर लिया, उसी समय दुर्वासा ऋषि अपने 60 हजार शिष्यों के साथ पहुँच गए। युधिष्ठिर परेशान हो गए कि इतने लोगों के लिए भोजन कैसे होगा? तब द्रौपदी ने श्रीकृष्ण को पुकारा।

भगवान को पुकारो, वे अवश्य आएँगे
द्रौपदी की पुकार सुनकर श्रीकृष्ण तुरंत आए। उन्होंने बटलोई से एक साग की पत्ती निकाली और जैसे ही उसे खाया, सारे ऋषियों को तृप्ति का अनुभव हुआ। उन्होंने भोजन की इच्छा ही नहीं जताई।
इस कथा से यह सिख मिलती है कि भगवान पर विश्वास रखना चाहिए। जब भक्त पूरे मन से भगवान को पुकारता है, तो वे अवश्य सहायता करते हैं।
भक्त की भावना ही मुख्य होती है
दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि को पांडवों के विनाश के लिए भेजा था, लेकिन उसकी ही योजना उलटी पड़ गई। युधिष्ठिर ने प्रार्थना की कि दुर्योधन जिस भावना से ऋषियों को भेजा था, वह उसी भावना को प्राप्त हो। इसीलिए कहा जाता है — जो दूसरों का विनाश चाहता है, वह पहले स्वयं विनाश को प्राप्त होता है।

भगवान से ही हठ करो
हमारी प्रार्थना और सहायता की अपेक्षा केवल भगवान से ही होनी चाहिए, क्योंकि वही एकमात्र हैं जो हमारे कष्ट भी हर सकते हैं और हमें सच्ची भक्ति भी प्रदान कर सकते हैं।
जैसे सुदामा जी ने कभी किसी से धन की याचना नहीं की, केवल अपने मित्र श्रीकृष्ण से मिलने गए। और भगवान ने उनकी निर्धनता को वैभव में बदल दिया। सुदामापुरी का निर्माण कर दिया। क्यों? क्योंकि सुदामा की भावना निष्कलंक और भक्तिभाव से भरी थी।
सुदामा जी का सुदामापुरी

सुदामा जी के पास संपत्ति तो दूर, खाने के लिए भी कुछ नहीं था। लेकिन जब वे सच्चे प्रेम और श्रद्धा से श्रीकृष्ण के पास पहुंचे, तो श्रीकृष्ण ने उनकी दरिद्रता को ऐसे मिटा दिया कि द्वारिकापुरी जैसी वैभवशाली सुदामापुरी बना दी। यह दिखाता है कि भगवान अपने भक्तों से कितना प्रेम करते हैं।
तुलसीदास जी की पंक्तियों का सार
“बने तो रघुवर से बने, और बिगड़े तो भरपूर, तुलसी औरन ते बने, ता बनवे पे धूल।”
अर्थात् अगर जीवन में कुछ बनना है तो भगवान राम (रघुवर) से बने, और अगर कुछ बिगड़ना है तो भी उन्हीं की कृपा से। तुलसीदास जी कहते हैं कि अगर हम दूसरों से कुछ पाने की सोचते हैं, तो वो केवल धूल के समान ही है।
एकमात्र भगवान का भरोसा

हमारा भरोसा किसी मित्र, धनवान व्यक्ति या किसी संसारिक शक्ति पर नहीं होना चाहिए। अगर भरोसा रखना है, तो बस एकमात्र भगवान पर रखो। वे किसी भी रूप में सहायता कर सकते हैं — चाहे मित्र बनकर, किसी घटना के माध्यम से, या किसी अवसर के रूप में।
संकट और भक्ति – दोनों साथ चलते हैं।
जब हम संकट में भगवान को पुकारते हैं, तो धीरे-धीरे भक्ति का अंकुर हमारे ह्रदय में पनपता है। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं बार-बार भगवान से माँग क्यों कर रहा हूँ। अगर माँगने की भावना भगवान के प्रति प्रेम से जुड़ी हो, तो वह माँग भी एक साधना बन जाती है।
बार-बार भगवान से प्रार्थना करें।
भगवान से बार-बार प्रार्थना करनी चाहिए। वे हमारे ह्रदय में ही हैं, कहीं दूर नहीं। जब हम भीतर से पुकारते हैं, तो वे अवश्य सुनते हैं। और जब तक संकट समाप्त न हो, तब तक प्रार्थना और नाम-स्मरण करते रहना चाहिए।
निष्कर्ष: भगवान से सहायता मांगना भक्ति का आरंभ है।
मुसीबत के समय भगवान से सहायता माँगना बिल्कुल उचित है। इससे न केवल हमारी समस्या हल होती है, बल्कि हमारा मन भगवान की ओर झुकता है। धीरे-धीरे यही झुकाव भक्ति में बदलता है, और हम भगवान के और अधिक समीप आ जाते हैं।
🙏 राधा वल्लभ श्री हरिवंश 🙏