मन नाम जप में क्यों थक जाता है, पर संसार में नहीं?

मनुष्य का मन अत्यंत विचित्र है। वही मन जो संसार के विषयों में घंटों लगा रहता है, वही मन भगवान के नाम जप, भजन और साधना में कुछ ही क्षणों में ऊबने लगता है। यह विरोधाभास साधारण नहीं है; इसके भीतर आध्यात्मिक विज्ञान छिपा है।

 “मन संसार से क्यों नहीं ऊबता, लेकिन नाम जप से क्यों ऊब जाता है?”

इसके पीछे मन की स्वाभाविक गति, संस्कार, आशा और दृढ़ विश्वास की भूमिका छिपी होती है।

1. मन की सहज प्रवृत्ति — नीचे की ओर गिरना

मन चंचल है और उसकी सहज प्रवृत्ति संसार की ओर है।
जैसे पानी सदैव नीचे की ओर बहता है, ऊपर उठने के लिए बाहरी बल चाहिए, वैसे ही मन का स्वभाव भी नीचे की ओर—भोग, आकर्षण, इच्छाएँ, विषय-वासनाओं की ओर—बहना है।

भगवान की ओर मन को ले जाना ऐसा है जैसे बहते पानी को ऊपर चढ़ाना।
इसके लिए चाहिए—
प्रयास, एकाग्रता, और भगवान का नाम।

नाम जप मन को संसार से हटाकर ऊपर की दिशा देता है, इसलिए मन को यह कठिन लगता है।
कठोर परिश्रम से मन थक जाता है, पर बहने से नहीं।
इसीलिए मन भजन में थकता है, संसार में नहीं।

2. शायद संसार में सुख है — यह सूक्ष्म आशा मन को भटकाती है

भक्ति का सबसे सूक्ष्म शत्रु है —
संसार में सुख की आशा।

यह आशा अत्यंत छोटे रूप में मन में रहती है।
साधक भले ही बड़े भोग न चाहता हो, पर मन में यह विचार रह जाता है—

“कहीं संसार में कुछ सुख मिल जाए…”

बस यही आशा साधना की संपूर्ण ऊर्जा को नष्ट कर देती है।
सेवक जी महाराज कहते हैं—

“जब तक संसार में सुख की आशा जीवित है, तब तक साधक भगवान तक अकेला नहीं पहुँच सकता।”

महापुरुषों ने संसार में सुख की आशा को जड़ से काट दिया था, इसलिए वे अडिग रहे।
उनके हृदय में यह दृढ़ता थी—
“सुख केवल प्रभु में है।”

3. गीता का सिद्धांत — प्रारंभ में सुखद, अंत में दुखद

श्रीकृष्ण कहते हैं—
“जो प्रारंभ में सुखद लगे, उसका परिणाम दुखद होता है।”

संसार के भोग प्रारंभ में मीठे, आकर्षक और सरल लगते हैं, परंतु उनके परिणाम क्लेश, भय और दुःख में बदलते हैं।
इधर भजन, नाम-स्मरण, संयम, वैराग्य—ये सब आरंभ में कठिन लगते हैं, पर इनका फल—

अनंत शांति, स्थायी सुख और निर्मल आनंद
—के रूप में मिलता है।

मन वही चुनता है जो तत्काल सुख दे।
लेकिन भक्ति वही चुनती है जो स्थायी सुख दे।

4. संसारियों को सुखी देखकर मन क्यों विचलित होता है?

साधक जब देखता है कि संसार के लोग भोगों में खोए हुए भी हँसते-बोलते, घूमते-फिरते सुखी दिखाई देते हैं, तो उसका मन कहता है—
“जब ये सब इतनी खुशी से जी सकते हैं, तो मैं क्यों तप करूँ?”

यह दृष्टि धोखा है।
संसार का सुख बाहर से चमकीला, भीतर से खोखला होता है।
और मन बाहरी चमक को देखकर भ्रमित हो जाता है।

जो पानी में चंद्रमा का प्रतिबिंब देखकर उसे पकड़ने दौड़े, वह हमेशा खाली हाथ लौटता है।
संसार का सुख ऐसा ही प्रतिबिंब है—छूने में आता है, पर पकड़ने में नहीं।

5. गुरु-वचनों पर दृढ़ विश्वास — भक्ति का वास्तविक प्रारंभ

भक्ति की शुरुआत वहाँ होती है जहाँ गुरु-वचनों में अटूट विश्वास पैदा होता है।
संत कहते हैं—

“जिसे गुरु पर विश्वास हो गया, उसका प्रारंभ भी सुखमय, मध्य भी सुखमय, और अंत भी आनंदमय हो जाता है।”

भले ही साधक का जीवन संसार में बीत रहा हो, पर यदि उसके भीतर गुरु के वचनों की ज्योति जल गई, तो वह संसार में रहते हुए भी भीतर से भगवान की ओर अग्रसर होता है।

यदि मन के विचारों को महत्त्व दिया और गुरु के वचनों को नहीं, तो भीतर युद्ध होगा—और साधक हार जाएगा।

6. मन की तरंगों को शांत करना ही भजन है

महापुरुषों ने भक्ति की सरल परिभाषा दी है—

“भजन कोई क्रिया नहीं, मन की तरंगों को रोकना ही भजन है।”

मन का काम है—
संकल्प,  विकल्प,  इच्छा, आकांक्षा, भावना, स्मृति, कल्पना—

यही सब तरंगें हैं।

जब साधक नाम जप करता है, तो ये तरंगें उठने लगती हैं—
“ये करूँ, वो छोड़ दूँ, वहाँ जाऊँ, ऐसा पाऊँ…”

इनको रोकना कठिन है, और कठिन काम में मन थकने लगता है।
इसलिए मन नाम जप में ऊबता है।

लेकिन इन्हीं तरंगों को रोकने का नाम भक्ति है, और वही साधक को भगवान से मिलाती है।

7. भगवान का स्वभाव जानना — भक्ति की जड़

भगवान का स्वभाव जानना, समझना और अनुभव करना—
यही वह शक्ति है जो साधक को स्थिर बनाती है।

भगवान का स्वभाव किससे प्रकट होता है?
संतों के चरित्र से
भक्तों की कथाओं से
भगवान की लीलाओं के श्रवण से

जब हम संत-चरित्र सुनते हैं, तब हमारे हृदय में यह भाव उतरता है—

“सुख भगवान में ही है; संसार में केवल भ्रम है।”

यही बोध मन को स्थिर करता है।

8. कठिनाइयाँ क्यों आती हैं? — निष्ठा की परीक्षा

साधक के जीवन में प्रतिकूलता आती है ताकि वह जान सके—
वह कहाँ खड़ा है?

ऊँट को लगता है कि वह बहुत ऊँचा है, पर जब पहाड़ के सामने आता है तब उसकी भूल दूर होती है।
उसी प्रकार महापुरुषों के सान्निध्य में आने से हमारी साधना की वास्तविक अवस्था पता चलती है।

प्रतिकूलता यह नहीं दिखाती कि भगवान दूर हैं, बल्कि यह समझाती है कि
हमारी पकड़ ढीली है।

9. नाम जप से जागती है सूक्ष्म बुद्धि

नाम जप केवल मन को शांत नहीं करता,
वह बुद्धि को सूक्ष्म, तीक्ष्ण और प्रकाशमय बनाता है।

राधा बाबा जी कहते थे—
“जो प्रश्न का उत्तर सुनना चाहता है, पहले रोज़ एक लाख नाम जप करे।”

क्योंकि उत्तर तब ही समझ आएगा जब बुद्धि तैयार होगी।
नाम-जप से वही तैयार होती है।

जब बुद्धि सूक्ष्म होती है, तो वह संसार के झूठे सुख को पहचान लेती है और संशय अपने आप समाप्त हो जाते हैं।

10. निष्कर्ष — सुख का सागर केवल भगवान

साधक का मन संसार में इसलिए दौड़ता है क्योंकि उसने अभी तक भगवान में सुख का अनुभव नहीं किया।
जैसे जिसने कभी समुद्र नहीं देखा वह तालाब को ही बड़ा समझ लेता है—

वैसे ही जिसे भगवान का स्वाद नहीं मिला, उसे संसार का सुख ही बड़ा लगता है।

संसार का सुख क्षणिक, अस्थिर और भययुक्त है।

भगवान का सुख अनंत, अटूट और निर्मल है।

संसार का सुख मिले नहीं कि भय आ जाता है—
“यह खो जाएगा।”
लेकिन भगवान का सुख ऐसा नहीं—
वह स्थायी है, शांति-पूर्ण है, और हृदय को भर देता है।

महापुरुषों ने अनुभव से कहा है—
“संसार सुख नहीं, केवल भगवान ही सुख-सागर हैं।”

अंतिम संदेश

भक्ति का मार्ग सरल हो जाता है जब साधक यह स्वीकार कर ले—

“संसार में सुख नहीं; मेरे प्रभु ही सुख-सागर हैं।”

इसके बाद साधक का केवल तीन कार्य रह जाते हैं—
नाम-जप, सत्संग, और गुरु-वचनों का पालन।

बस इतना—
मन की तरंगों को शांत करो,
नाम का स्मरण करो,
और हृदय में दृढ़ करो—

“सुख केवल प्रभु में है।”

FAQ’s

1. मन नाम-जप करते समय जल्दी क्यों थक जाता है?


क्योंकि मन की स्वाभाविक गति संसार की ओर है। जब उसे संयमित करके भगवान की ओर मोड़ा जाता है तो प्रयास लगता है, और मन थकान महसूस करता है।

2. क्या सच में संसार में सुख नहीं है?


संसार का सुख क्षणिक, नश्वर और भययुक्त है। वह कुछ पल देता है परंतु उसका परिणाम हमेशा दुःख में बदल जाता है। स्थायी सुख केवल भगवान में मिलता है।

3. नाम-जप से क्या लाभ मिलता है?


नाम-जप मन को शांत करता है, बुद्धि को सूक्ष्म और तीक्ष्ण बनाता है, संशय को मिटाता है और भक्ति की राह को स्पष्ट करता है। इससे साधक स्थिर और निश्चिंत हो जाता है।

4. भक्ति का मार्ग कठिन क्यों लगता है?


क्योंकि मन में यह सूक्ष्म आशा रहती है कि “शायद संसार में सुख है।” जब तक यह आशा खत्म नहीं होती, तब तक भक्ति कठिन लगती है। जैसे ही यह भ्रम टूटता है, साधना सहज हो जाती है।

5. मन को भक्ति में स्थिर कैसे करें?


निरंतर नाम-जप, सत्संग, संत चरित्रों का श्रवण और गुरु-वचनों पर दृढ़ विश्वास से मन स्थिर होता है। मन की तरंगों को जीतना ही सच्चा भजन है।

🙏 राधा वल्लभ श्री हरिवंश 🙏

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