साधना के मार्ग पर चलने वाला हर साधक जब अपने भीतर झांकता है, तो उसे सबसे बड़ा शत्रु बाहर नहीं, अपने ही मन के भीतर दिखाई देता है। यही मन सबसे सूक्ष्म, सबसे चालाक और सबसे कठिन योद्धा है।
यह मन कभी भय दिखाकर, कभी मोह में बांधकर और कभी निराशा फैलाकर साधक को उसके मार्ग से भटकाने का प्रयास करता है।
इसलिए कहा गया है —
“सच्चा साधक वही है, जो अपने मन को पहचान ले।”
मन की चालें – डराना और निरुत्साहित करना
मन का पहला अस्त्र होता है — डर और निरुत्साह।
जब साधक भजन में, नाम-स्मरण में या ध्यान में उत्साह के साथ आगे बढ़ता है, तो मन धीरे से कहता है —
“तू यह नहीं कर पाएगा”,
“तेरे बस की बात नहीं”,
“इतना काफी है, कल से करेंगे।”
यही है मन का छल।
यह धीरे-धीरे साधक के भीतर आलस्य और संदेह भर देता है, ताकि साधना रुक जाए।
सद्गुरुदेव भगवान कहते हैं —
“मन डराएगा – पर डरना नहीं।”
मन की चालों को पहचानना ही उसे हराने की शुरुआत है।
समाधान – नाम-जप, वैराग्य और नियम
मन के विकारों को शांत करने के तीन मुख्य उपाय हैं —
नाम-जप, वैराग्य और नियम।
- नाम-जप:
जब साधक नाम-जप में डूबता है, तो उसके विचारों की गति मंद हो जाती है।
नाम में ऐसी शक्ति है जो मन की बेचैनी को शांत करती है।
हर श्वास के साथ “राधा”, “श्याम”, “हरि” या “राम” का उच्चारण करें — नाम ही वह दिव्य औषधि है जो मन के रोग मिटाती है।
- वैराग्य:
मन भोगों में सुख खोजता है, पर बुद्धि जब यह जान लेती है कि स्थायी सुख केवल प्रभु में है, तो मन स्वयं हटने लगता है।
यही वैराग्य है — भोगों में दुःख-बुद्धि और भगवान में सुख-बुद्धि।
- नियम:
नियम साधना की रीढ़ है।
यदि साधक हर दिन एक निश्चित समय पर भजन, ध्यान और नाम-जप करता है, तो मन धीरे-धीरे उसी अनुशासन में बंध जाता है।
सद्गुरुदेव भगवान के वचन है —
“जो एक नियम को बारह वर्षों तक निभाए, वह सिद्धि को प्राप्त करता है।”
दृष्टिकोण – मन को देखना, पर उसमें न बहना
साधना में सबसे गहरा बिंदु है — मन को देखना।
परंतु साधक को यह समझना चाहिए कि उसे मन में बहना नहीं है।
जब हम किसी विचार को उठते हुए देखते हैं और सोचते हैं —
“यह मेरा नहीं, यह मन का है” —
तो हम उस विचार के दास नहीं रहते।
श्री भाई जी महाराज ने कहा है —
“साधक मन से ही मन को मारने की चेष्टा करता है।”
मन को जीतने के लिए बस उसे देखना सीखिए।
जब हम उसे ध्यानपूर्वक देखते हैं, तो उसकी शक्ति घटने लगती है — जैसे चोरी करते हुए चोर को कोई देख ले, तो वह सकपका जाता है।
अंतिम शरण – भगवान के चरणों में समर्पण

जब साधक सभी उपाय आज़मा लेता है — नाम-जप, वैराग्य, नियम, फिर भी मन शांत नहीं होता,
तब उसे पूर्ण शरणागति की ओर जाना होता है।
यह वह क्षण होता है जब साधक हृदय से कहता है —
“प्रभु! अब यह मेरे बस की बात नहीं। आप ही संभाल लीजिए।”
यह surrender ही असली शक्ति है।
जब ‘मैं’ मिट जाता है, तब भगवान का ‘आप’ कार्य करता है।
“जहाँ ‘मैं’ मिटा, वहाँ कृपा प्रकट हुई।”
यही है अंतिम शरण, जहाँ साधक के प्रयास समाप्त होकर भगवान का अनुग्रह आरंभ होता है।
व्यवहारिक साधन – प्रेमपूर्वक कीर्तन और नाम-स्मरण
मन को जीतने का सबसे सरल और सुंदर उपाय है —
प्रेमपूर्वक कीर्तन और नाम-स्मरण।
जब मन विचलित हो, जब भीतर निराशा या ऊब महसूस हो,
तब प्रेम से भगवान का नाम गाइए।
श्री भाई जी महाराज कहते हैं —
“श्वास पर दृष्टि रखो और नाम का रटन करो।”
हर श्वास के साथ नाम का स्पंदन जुड़ जाए — यही सच्ची साधना है।
नाम का कीर्तन केवल स्वर नहीं, भावना है —
जैसे बच्चा अपनी माँ को पुकारता है,
वैसे ही साधक हृदय से पुकारे —
“राधा! राधा!”
“श्याम! श्याम!”
इस पुकार में जब प्रेम जागता है, तब मन शांत हो जाता है, क्योंकि मन वहीं विश्राम करता है जहाँ उसका प्रियतम है।
मन को वश में करने के तीन मुख्य उपाय
सद्गुरुदेव और महापुरुषों ने मन को वश में करने के तीन प्रमुख साधन बताए हैं —
- भोगों में वैराग्य विकसित करना
यह जान लेना कि संसारिक वस्तुओं में सुख नहीं है।
जब यह समझ दृढ़ होती है, मन स्वयं हटने लगता है। - नियम में स्थिर रहना
भजन और ध्यान का निश्चित समय निर्धारित करें।
जब अभ्यास नियमित होता है, मन शांति का आदी बनता है। - मन की गतिविधियों पर दृष्टि रखना
हर क्षण स्वयं से पूछें —
“क्या मैं गुरु आज्ञा का पालन कर रहा हूँ या मन की आज्ञा का?”
यह प्रश्न साधक को आत्म-जागरूक बनाए रखता है।
मन की चालें और साधक की जागरूकता
मन की चालें बहुत सूक्ष्म होती हैं।
कभी यह साधक को थकान का बहाना देता है, कभी अधिक आत्मगौरव में डाल देता है —
“अब तो मैं बहुत साधक बन गया हूँ।”
यही मन का भ्रम है।
मन का कार्य है धोखा देना; साधक का कार्य है सजग रहना।
जब मन यह कहे — “अब बस करो,” तब कहिए — “अभी आरंभ किया है।”
जब मन कहे — “नहीं होगा,” तब कहिए — “भगवान करेंगे।”
निष्कर्ष – मन को पहचानना ही मुक्ति की शुरुआत
मन को हराने की लड़ाई कोई बाहरी युद्ध नहीं, बल्कि एक भीतर का युद्ध है।
इस युद्ध में जीतने वाला वही होता है जो सतर्क, विनम्र और समर्पित है।
नाम-जप, वैराग्य, नियम, दृष्टि और समर्पण — ये पाँच हथियार साधक के कवच हैं।
जब साधक इनका प्रयोग प्रेमपूर्वक करता है, तब मन की सारी चालें स्वयं निष्प्रभावी हो जाती हैं।
सद्गुरुदेव भगवान का वचन याद रखें —
“मन की चालों से सावधान रहो। मन डराएगा, पर डरना नहीं।”
इसलिए,
हर श्वास में नाम का रटन करें,
हर कर्म में गुरु आज्ञा का पालन करें,
और हर क्षण मन को देखना न भूलें।
“मन डराएगा — पर डरना नहीं।
नाम में रहो, वही तुम्हारी रक्षा करेगा।”
FAQ’s
मन की चालें वे सूक्ष्म विचार और भावनाएँ हैं जो साधक को भक्ति मार्ग से भटकाने का प्रयास करती हैं। जैसे – “यह मेरे बस की बात नहीं”, “इतना काफी है”, या “बाद में करेंगे” – ये सब मन की चालें हैं जो हमें साधना में स्थिर होने से रोकती हैं।
मन को वश में करने के लिए तीन प्रमुख उपाय हैं – नाम-जप, वैराग्य, और नियम। जब साधक प्रेमपूर्वक भगवान का नाम जपता है, भोगों में वैराग्य लाता है और नियम से साधना करता है, तब मन धीरे-धीरे शांत होकर प्रभु के अधीन हो जाता है।
जब मन बेचैन या अस्थिर हो जाए, तब सबसे सरल उपाय है — प्रेमपूर्वक नाम-कीर्तन। जैसे बच्चा अपनी माँ को पुकारता है, वैसे ही भाव से भगवान को पुकारें – “राधा राधा” या “श्याम श्याम।” यह नाम-स्मरण मन को तुरंत शांत कर देता है।
🙏 राधा वल्लभ श्री हरिवंश 🙏