क्या भगवान की कृपा होने पर वे सबसे दूर कर देते हैं, ऐसे में तो अकेलापन हो जाएगा (Ekantik Vartalaap)?

महाराज जी कहते हैं, “तुम अकेलेपन की बात करते हो, लेकिन सोचो क्या तुम कभी सच में अकेले रहे हो? क्या भगवान कभी तुमसे दूर हुए हैं? ये तो बस तुम्हारी कल्पना है। बचपन से लेकर अब तक, क्या कोई ऐसा पल आया जब तुम वास्तव में अकेले थे? नहीं, हमारे साथ तो सदा हमारे प्रिय प्रीतम, हमारे भगवान रहते हैं।

आज भले ही तुमसे मिलने कुछ ही लोग आते हों, लेकिन मुझसे मिलने हजारों लोग आते हैं। मगर ये सब बाहर के लोग हैं। असली संगति तो भीतर है—हमारे प्रभु, जो हर पल हमारे साथ हैं।”

हर कदम हर पल हमारे साथ है। इतने सुन्दर प्रभु इतनी सुन्दर हमारी प्रियाजू हमारे साथ है हमें और किसी के साथ की जरुरत नहीं हैं। 

यहाँ जितने साथी है मरड धर्मा है कब मर जाए कब बिछुड़ जाए कुछ पता नहीं वो अभिनाशी प्रीतम हमारे साथ है। तो हम अकेले कैसे हुए तुम अकेले हो तुम पति पुत्र के साथ रहते हुए भी अकेले हो क्योकि कोई तुह्मारा साथी नहीं न तुम उसे जानते हो और न ही वो तुहमे जानते है सब परदेसी की तरह रहते हैं। जानते हो तुह्मारा पुत्र कोन है, अपनी पत्नी को जानते हो कोन है, अपने पति को जानते हो कोन हैं, किसी से कोई परिचय नहीं बस सबको अपना माने बैठे है। 

अगर जान जाओ तो भगवान है, पति रूप में भगवान हैं, पुत्र रूप में भगवान् है, पत्नी रूप में भगवान है। अगर ये जान जाओ तो तुमको भी वही गति होगी जो बड़े-बड़े संतों को होती है। तो ये तो जानते नहीं।

अकेलापन किसे खाता है, 

जो भगवान को अपना न मानकर मनुष्य को अपना मानता है। उन्हें नहीं जो भगवान को अपना माने है। 

जो इंसानों को अपना मानते है उसका कोई नहीं होता संसार में, कोई भी नहीं , और जो प्रिया प्रीतम को अपना मने है उनके भगवान है राधारानी है। 

जो इंसानो को अपना मानते हो वो इंसान कभी भी मर सकता है किन्तु जो भगवान को अपना मानते है उनके भगवान कभी भी नहीं मर सकते उस व्यक्ति को भगवान मिलते है जो भगवान को अपना मानते है। 

संतो को अकेलापन खाता है क्या?

जो संत महात्मा है उन्हें अकेलापन कभी भी नहीं खाता वो अकेले की तरफ भागते है। क्योकि अगर इंसान मिलेंगे तो भगवान से मिलने में बाधा पढ़ जाएगा, इसलिए संत महात्मा अकेला रहना पसंद करते है। ताकि वह अकेले भगवान की याद में खो जाए और फिर भगवान ही आकर मिले। 

अकेलेपन का मतलब होता है मनुष्यो से असंगता, और राधाकृष्ण की प्राप्ति। 

महाराज जी का कहना हैं अगर हम नाम जप(Radha naam) करे बिना किसी छल के तो हमें भगवत प्राप्ति हो जाएगा।

यह ‘अकेलापन’ नकारात्मक नहीं, बल्कि सकारात्मक है। यह संसार से भागना नहीं, बल्कि संसार के मोह-बंधन से मुक्त होना है। जब मन बाहरी, नश्वर साथियों से असंग हो जाता है, तभी उसे अपने सच्चे, अविनाशी साथी—श्री राधाकृष्ण—की ओर मुड़ने का अवसर मिलता है।

निष्कर्ष:

पूज्य महाराज जी की यह एकांतिक वार्तालाप हमें सिखाती है कि भगवान की कृपा हमें अकेला नहीं करती, बल्कि हमें वास्तविक संगति का बोध कराती है। असली अकेलापन संसार की भीड़ में होता है, जहाँ रिश्ते अज्ञान पर टिके हैं। भगवान की कृपा हमें उस एकांत की ओर ले जाती है, जो मनुष्यों से विरक्ति और राधाकृष्ण के नित्य मिलन का मार्ग है। यह अकेलापन दुःख नहीं, बल्कि परमानंद का द्वार है, जहाँ हर पल हमारे प्रिय प्रीतम, हमारे साथ हैं। जिसके साथ अविनाशी भगवान हों, वह कभी अकेला हो ही नहीं सकता।

FAQ’s

1. महाराज जी के अनुसार, हम कभी अकेले क्यों नहीं रहे हैं, जबकि हमें अक्सर अकेलापन महसूस होता है?


महाराज जी कहते हैं कि “अकेलापन” केवल एक भ्रामक कल्पना है। हम कभी अकेले नहीं रहे, क्योंकि हमारे प्रिय प्रीतम, हमारे भगवान, हर कदम और हर पल हमारे साथ हैं। हमें अकेलापन इसलिए महसूस होता है क्योंकि हम उस नित्य, अविनाशी चेतना (भगवान) को अनदेखा करके, बाहरी, क्षणभंगुर मनुष्यों की संगति को ही एकमात्र सहारा मानते हैं। जो सत्ता जीवन का आधार है, उससे अनभिज्ञ रहना ही सच्चे अकेलेपन का कारण है।

2. महाराज जी ‘बाहरी संगति’ (मनुष्यों) और ‘आंतरिक संगति’ (प्रभु) में क्या अंतर बताते हैं?


बाहरी संगति अस्थिर और क्षणभंगुर होती है, क्योंकि संसार के साथी ‘मरण धर्मा’ हैं—वे कभी भी बिछुड़ सकते हैं या मर सकते हैं। यह संगति केवल शारीरिक उपस्थिति है। इसके विपरीत, आंतरिक संगति हमारे अविनाशी प्रभु, श्री राधाकृष्ण के साथ होती है, जो हर पल हमारे भीतर मौजूद हैं। बाहरी संगति दुःख और बिछोह लाती है, जबकि आंतरिक संगति स्थायी सुरक्षा और परमानंद प्रदान करती है।

3. ‘पति-पुत्र के साथ रहते हुए भी अकेले होने’ का महाराज जी का क्या अर्थ है?


इसका अर्थ यह है कि सांसारिक रिश्ते केवल देह और स्वार्थ पर आधारित हैं, न कि वास्तविक आत्मा के परिचय पर। हम अपने निकटतम संबंधियों के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना, केवल उन्हें ‘अपना’ मानकर उनके साथ रहते हैं—जैसे ‘परदेसी’। जब तक हम यह नहीं जानते कि पति रूप में भगवान हैं, पुत्र रूप में भगवान हैं, तब तक संबंध केवल शरीर तक सीमित रहते हैं। ऐसे अपूर्ण परिचय वाले रिश्ते कभी भी सच्चा सहारा नहीं बन सकते, इसलिए इन संबंधों की भीड़ में भी व्यक्ति अकेला ही रहता है।

4. अकेलापन वास्तव में किसे खाता है (किसे दुखी करता है)?


महाराज जी स्पष्ट करते हैं कि अकेलापन उस व्यक्ति को दुखी करता है जो भगवान को अपना न मानकर मनुष्यों को अपना मानता है। जो नश्वर मनुष्यों पर निर्भर रहते हैं, वे हमेशा बिछोह के डर से ग्रस्त रहते हैं, क्योंकि उनका सहारा कभी भी मर सकता है। इसके विपरीत, जो प्रिया-प्रीतम (राधाकृष्ण) को अपना मानते हैं, वे सुरक्षित रहते हैं, क्योंकि उनके भगवान अविनाशी हैं और उन्हें अंततः दर्शन अवश्य देते हैं।

5. संतों का एकांत (अकेलापन) सामान्य लोगों के अकेलेपन से किस प्रकार भिन्न है?


सामान्य लोगों का अकेलापन अभाव, दुःख और डर से उत्पन्न होता है। संतों का एकांत इसके विपरीत, सकारात्मक और वांछित होता है। संत इसलिए अकेलेपन की ओर भागते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मनुष्यों की संगति भगवान की याद में बाधा डालती है। संतों के लिए, एकांत का अर्थ है ‘मनुष्यों से असंगता’ और ‘राधाकृष्ण की प्राप्ति’। यह अलगाव का नहीं, बल्कि अपने प्रियतम से मिलने की तैयारी का साधन है।



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