यदि पत्नी यह कहे कि प्रभु का नाम जपने या मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं है, तो हमें यह समझना चाहिए कि भगवान की स्मृति केवल बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से भी की जाती है। यदि कोई मन ही मन भजन करता है, तो वह भी ईश्वर की सच्ची आराधना है। भक्ति का मार्ग केवल प्रदर्शन नहीं, बल्कि अंतरात्मा की शुद्ध भावना से चलता है।
प्रेमानन्द महाराज जी बताते है, यदि पत्नी माता-पिता की सेवा करने से रोके, तो ऐसी बात मानना धर्म के विपरीत है। माता-पिता की सेवा से विमुख होना केवल अविनय नहीं, बल्कि पाप की ओर बढ़ना है। उन्होंने हमें जन्म दिया, पाला-पोसा, और जीवन के योग्य बनाया — उनका हम पर पहला अधिकार है।
यदि कोई मंदिर जाने से नाराज़ होता है, तो उस पर विचार किया जा सकता है। लेकिन माता-पिता की सेवा छोड़ देना किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं है। चाहे कैसी भी स्थिति आ जाए, माँ-बाप की सेवा को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। यह हमारा धर्म है, कर्तव्य है और उनके प्रति कृतज्ञता का वास्तविक प्रमाण है।
माता-पिता की सेवा: सबसे पहला कर्तव्य
भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:
“मातृदेवो भव। पितृदेवो भव।”
(अर्थात् – माता और पिता को देवता के समान मानो।)
हमारे जीवन में सबसे पहले अधिकार माता-पिता का होता है। उन्होंने हमें जन्म दिया, हमारी परवरिश की, शिक्षा दी और योग्य बनाया। जब वे वृद्ध हो जाते हैं और उन्हें हमारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उस समय उनकी सेवा करना हमारा परम कर्तव्य है।
यदि पत्नी माता-पिता की सेवा करने से रोके, तो यह विचार करना चाहिए कि क्या यह उचित है? क्या हम उन हाथों को ठुकरा सकते हैं जिन्होंने हमें चलना सिखाया?
पत्नी के साथ भी न्याय जरूरी

पत्नी भी हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वह हमारी अर्धांगिनी है, जिसने हमारे जीवन को सुख-दुख में साझा किया है। उसका सम्मान करना, उसकी भावनाओं का ध्यान रखना भी आवश्यक है।
परंतु…
यदि पत्नी कहे कि माता-पिता की सेवा मत करो, तो हमें विनम्रता से उसे समझाना चाहिए। उसे यह बताना चाहिए कि जैसे वह अपने माता-पिता से प्रेम करती है, वैसे ही हमें भी अपने माता-पिता की सेवा करने का अधिकार है।
पत्नी अगर मंदिर जाने या जप करने से रोके?
अगर पत्नी कहती है कि मंदिर जाना, भजन करना व्यर्थ है, तो हमें समझना चाहिए कि सच्चा भजन केवल बाहर से नहीं होता, वह अंतर्मन से होता है।
“भावना हि भजनं खलु, न क्रिया बहुलं मता।”
(अर्थात् – सच्चा भजन मन की भावना से होता है, बाहरी क्रियाएं गौण हैं।)
इसलिए अगर वह बाहर से रोकती भी है, तो भी हम मन में प्रभु का स्मरण कर सकते हैं। लेकिन अगर माता-पिता की सेवा से रोके, तो उसका विरोध करना चाहिए – प्रेम से, परन्तु दृढ़ता से।
एक सच्ची सीख: जैसा बोओगे, वैसा काटोगे
एक पुरानी कथा है –
एक बहू अपनी सास को पुराने बर्तन में खाना देती थी। एक दिन जब वह ज़ोर से बर्तन ज़मीन पर रखती है, तो उसका बेटा कहता है, “माँ, धीरे रखो, ये बर्तन मुझे भी भविष्य में आपके लिए इस्तेमाल करने हैं।” यह सुनकर माँ को झटका लगता है और वह अपने व्यवहार को सुधारती है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि जैसे हम अपने माता-पिता के साथ व्यवहार करेंगे, वैसा ही भविष्य में हमारी संतान हमारे साथ करेगी।
सास-ससुर और बहू का रिश्ता
बहू को नौकरानी नहीं, बल्कि घर की लक्ष्मी मानना चाहिए। सास-ससुर अगर अपनी बहू को बेटी के समान मानेंगे, तो परिवार में प्रेम बना रहेगा।
और पत्नी को भी यह समझना चाहिए कि अगर वह आज सास-ससुर की सेवा नहीं करेगी, तो कल वह भी अकेली रह जाएगी।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।”
(जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता वास करते हैं।)
पति की भूमिका: धैर्य और विवेक
पति को संतुलन बनाने वाला होना चाहिए। उसे पत्नी के अच्छे सुझाव मानने चाहिए, लेकिन अनुचित बातों में दृढ़ रहना चाहिए।
माता-पिता की सेवा करते हुए अगर वह गाली भी दें, डाँटें भी, तो भी हमें सेवा नहीं छोड़नी चाहिए। क्योंकि जब तक हम सेवा को भगवान की सेवा न मानें, तब तक वह सेवा अधूरी है।
“सेवा परमो धर्मः।”
(सेवा ही परम धर्म है।)
जब नई पीढ़ी माता-पिता को बोझ समझे
आजकल की आधुनिक सोच और रिश्तों में भावनात्मक दूरी ने कई बच्चों को इतना स्वार्थी बना दिया है कि वे अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं। होटल का खाना, स्वतंत्र जीवनशैली, रिलेशनशिप – यह सब उन्हें भाता है, लेकिन बुजुर्गों की सेवा नहीं।
इससे समाज में वृद्धाश्रम की संख्या बढ़ रही है, लेकिन पारिवारिक प्रेम घटता जा रहा है।
माता-पिता या पत्नी – त्याग किसका?
इसका उत्तर बड़ा स्पष्ट है – किसी का भी त्याग मत करो।
पत्नी को प्रेम से समझाओ, माता-पिता की सेवा को प्राथमिकता दो, और जीवन में संतुलन बनाओ। यदि पत्नी छोड़ने की धमकी देती है, तो भी माता-पिता का त्याग मत करो।
“यः पितृन् मातरं चैव यो न सेवति दुर्बुद्धिः।
न सः लोकं न परं च स याति नरकं ध्रुवं॥”(जो माता-पिता की सेवा नहीं करता, वह इस लोक और परलोक दोनों से वंचित हो जाता है।)
आर्थिक सेवा भी जरूरी
अगर आप 1000 रुपये कमाते हैं, तो उसमें से कम से कम 200 रुपये माता-पिता के लिए रखें। वृद्धावस्था में उन्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है – स्नेह, सुरक्षा और सम्मान की।
निष्कर्ष: प्रेम, सेवा और भक्ति से परिवार बनता है
आप किसी एक को नहीं छोड़ सकते। न पत्नी को, न माता-पिता को। बस आपको प्रेम, धैर्य और विवेक से काम लेना है। पत्नी को समझाना है, माता-पिता की सेवा में दृढ़ रहना है, और सबसे ऊपर भगवान का नाम स्मरण करना है।
“नाम जप ही जीवन का सार है,
सेवा, प्रेम और भक्ति से ही उद्धार है।”
FAQ’s
पति को प्यार और समझदारी से दोनों के बीच संतुलन बनाना चाहिए। बातों को शांति से सुलझाएं, दोनों की इज्जत करें और घर में प्रेम का माहौल बनाए रखें।
माता-पिता हमारे पहले गुरु होते हैं। उन्होंने अपने सुखों का त्याग कर हमें इस योग्य बनाया कि हम आज समाज में सम्मानित जीवन जी सकें। उनकी सेवा करना केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि सच्ची भक्ति का रूप है।
शास्त्र में भी कहा गया है –
“मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः”
अर्थात माता-पिता को देवता के समान मानो।
उनकी सेवा से न केवल आशीर्वाद मिलता है, बल्कि जीवन में सुख-शांति और आत्मसंतोष भी मिलता है।
सबसे पहले, पति को पक्षपात नहीं करना चाहिए। धैर्य और समझदारी से दोनों की बातों को सुनें और आपसी संवाद को बढ़ावा दें। पत्नी को अकेले में समझाएं, माँ को सम्मान दें और उनके बीच सामंजस्य बैठाने की कोशिश करें। यदि कोई गलतफहमी हो तो उसे जल्दी सुलझाएं और दोनों को यह एहसास कराएं कि वे परिवार के दो मजबूत स्तंभ हैं, और उनका मेल-जोल पूरे घर को आनंदित करता है।
🙏 राधा वल्लभ श्री हरिवंश 🙏
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